Wednesday, October 19, 2011

ZINDAGI

ज़िन्दगी से जाने क्या चाहती हु
हर सांस को जीना चाहती हु
हर बात पे हसना चाहती हु

जाने क्या पीछे छोड़ आई हु
जाने क्या साथ लाइ हु
ज़िन्दगी तू भी अजब है
कभी लहराती पतंग तो कभी बेरंग है
ज़िन्दगी से जाने क्या चाहती हु.......


ये ज़िन्दगी भी जाने कितने रिश्ते साथ लाती है
कुछ रिश्ते खामोश होते हैं फिर भी सब बयां कर जाते हैं
कुछ रिश्ते दूर होते हैं फिर भी पास नज़र आते हैं
कुछ रिश्तों का कोई नाम नहीं होता फिर भी एक एहसास छोड़ जाते हैं
ज़िन्दगी से जाने क्या चाहती हु.......

ऐ ज़िन्दगी  मै तुझे जीना चाहती हु
हर एक एहसास को छूना चाहती हु
तेरी बाँहों मे झूलना चाहती हु
तो कभी तेरे तकिये पे सोना चाहती हु
कभी दिल भर आए तो गले लग के रोना भी चाहती हु
ज़िन्दगी से जाने क्या चाहती हु.......

मेरी ज़िन्दगी आम है पर कुछ ख़ास करना चाहती हु
इस बेनाम ज़िन्दगी को एक ख़ूबसूरत नाम देना चाहती हु
ज़िन्दगी से जाने क्या चाहती हु.......

ज़िन्दगी एक बार भरोसा तो कर मुझ पे
क्यों रूठ गई है आज कल तू मुझ से
हर एक हंसी भी उधार सी लगती है अब
आँखों का पानी भी सूख गया
अब तो एहसान कर मुझ पे
ज़िन्दगी से जाने क्या चाहती हु.......

इतनी भीड़ है फिर भी अकेलापन क्यों सताता है?
कहीं फिर से देर न हो जाए ऐसा भय क्यों डराता है?
ज़िन्दगी से जाने क्या चाहती हु.......

बहुत हुआ रूठना अब तो वापस आ जा
मुझे जीने दे मुझे हसने दे
जो खो गया उसे जाने दे
जो पास है उसे निभाने दे
ज़िन्दगी से जाने क्या चाहती हु.......

एक बार फिर से पकड़ मेरा हाथ तू
ले चल मुझे उस ओर जहाँ तेरा साथ हो
जीने की उमंग हो, लहरों सी तरंग हो

ज़िन्दगी से जाने क्या चाहती हु.....
हर सांस को जीना चाहती हु......
हर बात पे हसना चाहती हु.......

                                                                                                               ****अपराजिता****
                                                                                                                       26/Sep/2011

BACHPAN

इक रोज़ बचपन से मुलाक़ात हुई ,
उसने पुछा कैसी कट रही है?
मैंने कहा बस कट रही है....

बचपन मुस्कुराया और बोला
कहाँ गई वो बचपन की मुस्कराहट,वो मासूमियत,वो खिलखिलाहट?
आखिरी बार कब जोर  से हसे थे?
आखिरी बार कब दोस्त से  लड़े  थे?
कब सोये थे माँ की गोद मे?  कब खाया था पापा की प्लेट  मे?

मै गुमसुम उसके प्रश्नों मे जैसे खो सा गया?
सोचने लगा क्या मै इतना बदल गया?
ज़िन्दगी की दौड़  मे कहाँ छोड़ आये वो बचपन..
जब न झूठ का साया था न हार का गम ...
जब आंसू भर के हँसा करते थे...
जब दिल खोल के रोया करते थे

बचपन ने मेरी आँखों मे झाँका और कहा..
मै तुम्हारा अतीत हु पर आज भी तुम्हारे साथ हु..
क्यों इस भीड़ मै खुद को ही खोते जा रहे हो?
थोड़ी सी दौलत शोहरत के लिए अपनों से ही मुह मोड़ते जा रहे हो..

मै सन्न अपनी जगह बैठ गया..
एक मिनट के लिए घबरा  गया..
अपनी आखे बंद की ...सारा बचपन नज़र आ गया..
अपने और अपनों का प्यार याद आ गया..
मै जी उठा फिर से...मन नाच उठा फिर से..

ऐसा लगा जैसे बचपन के नाज़ुक हाथो ने फिर से मुझे थाम लिया हो..
नन्ही नन्ही यादो ने जैसे फिर से तन मन गुदगुदा दिया हो....

आज वो दर्द याद आया  जब पहली बार साइकिल से सड़क पे गिरा था
आज वो पापा का डर याद आया जब पहली बार घर देर से आया था
आज वो भाई का प्यार याद आया जब उसने पिटने  से बचाया था..
आज वो माँ का स्वार्थ  याद आया जब उसने रोटी पे अलग से घी लगाया था..

बचपन ने मेरा माथा चूम के कहा..
बचपन तो जीवन का एक पड़ाव है..
अतीत की गहराईयों मे खो जाता है..
पर तू तो इंसान है इतने सुन्दर एहसास को कैसे भूल जाता है?
बचपन न सही उसकी मासूमियत को जिंदा रख..
वो खिलखिलाहट न सही उसकी निश्चल्ता को जिंदा रख..

मैंने बचपन का हाथ थमा और ये वादा किया..
तेरा हर एहसास मै फिर से जियूँगा ...
तेरा हर सबक मै फिर से पढूंगा...
अब मै कुछ भी नहीं चाहता हु
बस एक बार फिर से तुझे जीना चाहता हु......
बस एक बार फिर से तुझे जीना चाहता हु......
बस एक बार फिर से तुझे जीना चाहता हु......

                                                                                                    ****अपराजिता****
                                                                                                            19/oct/2011